Sep 2, 2016

विकास के हाशिये पर खड़ा दलित

दीनबंधु वत्स

बिहार निरंतर आर्थिक प्रगति की राह पर है। वर्ष 2005-06 से 2014-15 के बीच राज्य की अर्थ व्यवस्था का विकास 10.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से हुआ। यह देश की सभी प्रमुख राज्यों के बीच लगभग सर्वाधिक है। लेकिन इसके बावजूद भी बिहार में दलितों की स्थिति में व्यापक सुधार नहीं हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार दलितों के विकास के लिए आवंटित धन राशि भी पूरी तरह ख़र्च नहीं कर पाती है। सरकार ने अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण विभाग के लिए वर्ष 2016-17 में 1628.64 करोड़ रुपये बजट में प्रस्तावित किए हैं। जिसमें योजना मद में 1413.05 करोड़ रुपये और ग़ैर योजना मद में 2015.59 करोड़ रुपये शामिल हैं। जबकि अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण विभाग का कुल बजट 2015-16 में 1789.39 करोड़ था। हालाँकि 2014-15 में 1181.12 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। इनमें से 85 प्रतिषत का ही उपयोग हो पाया था। वहीं 2013-14 में आवंटित धन राषि का केवल 83 प्रतिशत हिस्सा का ही उपयोग हो सका है।

बिहार निरंतर आर्थिक प्रगति की राह पर है। वर्ष 2005-06 से 2014-15 के बीच राज्य की अर्थ व्यवस्था का विकास 10.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से हुआ। यह देश की सभी प्रमुख राज्यों के बीच लगभग सर्वाधिक है। लेकिन इसके बावजूद भी बिहार में दलितों की स्थिति में व्यापक सुधार नहीं हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने दलितों में भी सबसे गरीब समुदायों के लिए एक अलग से महादलित समुदाय बनाया। जिससे उनके विकास पर अधिक ध्यान दिया जा सके। हालांकि, धीरे-धीरे इस समुदाय में दलितों की 22 में से 21 जातियां शामिल हो गईं। इनके विकास के लिए महादलित विकास मिषन की स्थापना की गई और अलग से धनराशि आवंटित की गई। लेकिन इसका भी आलम यह है कि आवंटित धनराशि भी पूरी तरह खर्च नहीं हो पा रही है।

बिहार में दलितों की आबादी लगभग 16 प्रतिशत है। भारत के सभी नागरिकों के लिए कानून के समक्ष समानता और मूलभूत मानवाधिकार और नागरिक अधिकार सुनिश्चित करने वाले संविधान को अपनाने के छः दषकों से अधिक बीत जाने के बाद भी इनके प्रति भेद-भाव बदस्तूर जारी है। बिहार में दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति आज भी चिंताजनक बनी हुई है। मूलभूत आवेश्यक्ताऒं के अभाव और सामाजिक भेदभाव का सबसे ज़्यादा प्रभाव दलित महिलाओं और बच्चों पर होता है। सामाजिक-राजनैतिक अधिकारों का सबसे अधिक हनन भी इन्हीं का होता है। सरकार दलितों के कल्याण के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करती है। फिर भी विकास की मुख्य धारा से यह समुदाय वंचित है।

बिहार निरंतर आर्थिक प्रगति की राह पर है। वर्ष 2005-06 से 2014-15 के बीच राज्य की अर्थ व्यवस्था का विकास 10.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से हुआ। यह देश की सभी प्रमुख राज्यों के बीच लगभग सर्वाधिक है। लेकिन इसके बावजूद भी बिहार में दलितों की स्थिति में व्यापक सुधार नहीं हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने दलितों में भी सबसे गरीब समुदायों के लिए एक अलग से महादलित समुदाय बनाया। जिससे उनके विकास पर अधिक ध्यान दिया जा सके। हालांकि, धीरे-धीरे इस समुदाय में दलितों की 22 में से 21 जातियां शामिल हो गईं। इनके विकास के लिए महादलित विकास मिशन की स्थापना की गई और अलग से धनराशि आवंटित की गई। लेकिन इसका भी आलम यह है कि आवंटित धनराशि भी पूरी तरह खर्च नहीं हो पा रही है।

बिहार में दलितों की आबादी लगभग 16 प्रतिशत है। भारत के सभी नागरिकों के लिए कानून के समक्ष समानता लगभग 80 प्रतिशत दलित गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। इनमें लगभग 91 प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं। भूमिहीनता से ग़रीबी की समस्या बढ़ती है और विकास की दर भी घटती है। बिहार में 91 प्रतिशत किसान सीमांत किसान हैं, जिनके पास एक हेक्टेयर से कम की जोत है और दलित किसानों के पास भूमि का अवदान और भी कम है। बिहार में एक भी दलित किसान बड़ी जोत वाला नहीं है। हालाँकि सरकार का दावा है कि लगभग 96 प्रतिशत आवासहीन दलितों के पास भूमि उपलब्ध करा दी गई है। दलितों की लगभग 80 प्रतिशत आबादी मात्र 4 प्रतिशत भूमिजोत पर आश्रित है। 2.43 लाख लक्षित परिवारों में से 2.34 लाख परिवारों को ही आवास योग्य भूमि आवंटित की गई है। इसमें भी अधिकांश लोगों का जमीन पर कब्जा ही नहीं हो पाया है। जीवन यापन के लिए यह लोग मजदूरी पर ही निर्भर हैं। लगभग तीन चैथाई घर में स्वच्छ पेयजल की सुविधा नहीं है। इसके अलावा आधे से अधिक दलित एक कमरे के घर में रहते हैं, जिनमें लगभग सात प्रतिशत लोगों के पास ही ईंट का पक्का मकान है। अधिकांश घरों में बिजली नहीं है। जनगणना 2011 के अनुसार 10 प्रतिशत से भी कम घरों में बिजली की सुविधा उपलब्ध है। ग्रामीण इलाकों में स्थिति और भी दयनीय है, जहां मात्र 6 प्रतिशत घरों में ही बिजली पहुंच रही है। स्वास्थ्य सुविधाओं और पहुँच का घोर अभाव है। दलित समुदाय में षिक्षा का स्तर भी सबसे कम है। मुशहर समुदाय में साक्षरता 6 प्रतिषत के क़रीब है।

इस समुदाय के लोग आज भी मैला ढोने का काम कर रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना 2011 के अनुसार राज्य में अभी भी 7268 लोग सिर पर मैला डोने का काम कर रहे हैं। जिनमें मात्र 137 लोगों की पहचान हुई है और उनमें से अबतक 131 लोगों को सहायता के नाम मात्र 40 हज़ार रुपये एकमुश्त दिया गया है। अभी तक किसी को स्वरोज़गार परियोजना के तहत काम उपलब्ध कराया नहीं जा सका है। तमाम प्रयासों के बावजूद भी इस अमानवीय कार्य से मुक्ति नहीं मिल पाई है। सर पर मैला ढोने वालों में सबसे अधिक महिलाएं हैं, जिनका सामाजिक राजनैतिक भेदभाव के कारण जीवन कठिन हो गया है।


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