Jun 14, 2018

प्लास्टिक का खतरा हर तरफ

- अजय कुमार झा.

1972 से हरेक वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस बार पर्यावरण दिवस पर भारत वैश्विक मेजबान है और संकल्प है दुनिया को प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त करने का। पिछले वर्ष दिसंबर में राष्ट्रसंघ की तीसरी पर्यावरण एसेम्बली में 193 देशों ने विश्व को प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त करने का संकल्प लिया है।
प्लास्टिक आज हमारे जीवन में अत्यंत उपयोगी वस्तु है और हम हरेक दिन प्लास्टिक का उपयोग कई तरह से करते हैं। सुबह उठते ही टूथब्रश और टूथपेस्ट से लेकर हमारे भोजन की पैकिंग, यातायात साधन, फोन, कंप्यूटर सभी चीजों में प्लास्टिक है। प्लास्टिक के बिना शायद आज जीवन की परिकल्पना असंभव सी लगती है। लेकिन यह प्लास्टिक पर्यावरण के लिए काफी घातक है। प्लास्टिक के पदार्थ नाॅनबायोडिग्रेडेबल हैं और यह डिग्रेड होने में 500 से 1000 वर्ष तक ले सकते हैं।

क्या है प्लास्टिक प्रदूषण
1950 से दुनिया भर में तकरीबन 8.3 बिलियन टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ है, जिसमें से सिर्फ 9 प्रतिशत रिसाइकल लिया है और सिर्फ 14 प्रतिशत इनसिनरेटर में जलाया गया है। अर्थात् 1950 से लेकर अभी तक 6.3 बिलियन टन हमारे पर्यावरण में मौजूद है। सारे प्लास्टिक में 60 प्रतिशत ऐसे प्लास्टिक हैं जो सिर्फ एक बार इस्तेमाल के लिए बनाए जाते हैं, जैसे चाय/काॅफी के कम, पानी या अन्य पेय पदार्थ के बोतल और पाॅलीथीन के थैले।
यह प्लास्टिक या तो बड़े लैण्डफिल में हैं या हमारे समुद्रों में। दोनों ही तरह से यह धरती को और समुद्री जीवन को प्रदूषित कर रहे हैं। समुद्र में व्हेल, सील या अन्य जीव प्लास्टिक में फँसकर या उसे खा कर रोज मर रहे हैं। प्लास्टिक टूटकर माइक्रो प्लास्टिक यानी अत्यंत सूक्ष्म कण में परिवर्तित होता है जो मछलियाँ खा लेती हैं और उनके माध्यम से हमारे भोजन चक्र में शामिल हो जाती हैं। समुद्रों और नदियों में प्लास्टिक प्रदूषण यदि इसी गति से चलता रहा तो 2050 तक नदियों और समुद्रों में मछलियों के बजाय प्लास्टिक अधिक मात्रा में पाया जाएगा। उत्तरी व दक्षिणी अटलांटिक महासागर और हिंद महासागर में वैज्ञानिकों ने ऐसे क्षेत्र चिन्हित किए हैं जहाँ प्लास्टिक प्रदूषण काफी ज्यादा है। उत्तरी व दक्षिणी प्रशांत महासागर में कुछ क्षेत्र सर्वाधिक प्रदूषित हैं। प्लाईमाउथ विश्वविद्यालय के शोध के मुताबिक ब्रिटेन में समुद्र से पकड़ी गई मछलियों में एक तिहाई में प्लास्टिक है। हर वर्ष 10 मिलियन टन प्लास्टिक हमारे समुद्रों में प्रवेश करता है।

सबसे बड़ी समस्या
प्लास्टिक में पाॅलीथीन बैग और पानी व अन्य पेय पदार्थों की बोतलें सबसे बड़ी समस्या है। दुनियाभर में प्रति मिनट दस लाख पेय पदार्थ की बोतलें बेची जाती हैं और प्रतिवर्ष तकरीबन 480 बिलियन प्लास्टिक की बोतलें बेची जाती हैं। इसमें से 110 बिलियन सिर्फ कोका कोला की बोतलें हैं।

कौन-से देश करते हैं सर्वाधिक प्लास्टिक प्रदूषण
चीन, इंडोनेशिया, अमरीका, थाईलैण्ड इत्यादि देश प्लास्टिक के इस्तेमाल और अपशिष्ट पैदा करने में सबसे आगे हैं। इन अपशिष्टों में बड़ा हिस्सा पर्यटकों की देन भी है।

प्लास्टिक की पानी की बोतलें (बिलियन गैलन में)
1. चीन                            10.04
2. अमरीका                    10.13
3. मैक्सिको                      8.23
4. इंडोनेशिया                     4.80
5. ब्राजील                      4.80
6. थाईलैण्ड                      3.99
7. इटली                      3.17
8. जर्मनी                      3.11
9. फ्रांस                              2.41
10. भारत                      1.04

किन देशों से कितना प्लास्टिक जाता है समुद्र में (मिलियन टन में)
1. चीन                             8.8
2. इंडोनेशिया                    3.2
3. फिलीपींस                     1.9
4. वियतनाम                     1.8
5. श्रीलंका                     1.6
6. मिस्र                             1.0
7. थाईलैण्ड                     1.0
8. मलेशिया                     0.9
9. नाईजीरिया             0.9
10. बांग्लादेश                      0.8


क्या कर रहे हैं देश प्लास्टिक प्रदूषण कम करने के लिए
बांग्लादेश प्लास्टिक की थैलियों को प्रतिबंधित करने वाला पहला देश है। रवांडा 2008 से प्लास्टिक मुक्त देश है। फ्रांस में भी किसी तरह से प्लास्टिक पर प्रतिबंध है। केन्या में प्लास्टिक के उपयोग पर 40,000 डाॅलर का अर्थदंड है। यूरोपीय संघ ने 2016 में 2030 तक सभी प्रकार के प्लास्टिक पैकेजिंग को रिसाइकिल करने और अगले 7 सालों में रिसाइकिल क्षमता को 30 प्रतिशत से बढ़ाकर 55 प्रतिशत करने की नीति बनाई है। ब्रिटेन में 2015 में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर टैक्स लगाकर इस्तेमाल में 85 प्रतिशत की गिरावट लाई है। चीन ने जनवरी 2000 में कानून बनाकर प्लास्टिक अपशिष्ट के आयात को बंद कर दिया है। ज्ञातव्य है कि चीन आयरलैण्ड के 95 प्रतिशत और अन्य यूरोपीय देशों से प्लास्टिक अपशिष्ट का आयात कर उसे रिसाइकिल करता था। चीन द्वारा प्लास्टिक अपशिष्ट का आयात बंद करने पर आयरलैण्ड और अन्य यूरोपीय देशों को अपने प्लास्टिक अपशिष्ट को ठिकाने लगाने का दूसरा तरीका ढूँढना होगा।
देशों के अतिरिक्त कुछ बड़ी कंपनियों ने भी प्लास्टिक प्रदूषण को कम करने की नीति अपनाई है। कोका कोला ने अपनी 110 बिलियन प्रतिवर्ष बिकने वाली पेय पदार्थों की बोतलों को वापस लेकर रिसाइकिल करने का मन बनाया है। यूनीलीवर और प्राॅक्टर एण्ड गैम्बल कंपनियों (ब्यूटी प्राॅडक्ट्स/ काॅस्मेटिक बनाने वाली कंपनियाँ) ने अपने उत्पाद में अधिक से अधिक रिसाइकिल की हुई प्लास्टिक उपयोग करने का निश्चय किया है। एडीडास ने समुद्री प्लास्टिक से जूता बनाना शुरू किया है। इसके अतिरिक्त कुछ परिधान बनाने वाली कंपनियों ने भी लोगों को जागरूक करने के लिए प्लास्टिक मिश्रित परिधान बनाने का निर्णय लिया है।

भारत में प्लास्टिक प्रदूषण
साइंस जरनल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार भारत समुद्रों में सर्वाधिक प्रदूषण करने वाले 20 देशों में 12वें स्थान पर है। इन देशों में चीन, दक्षिण-पूर्व एशियाई देश, श्रीलंका, मिस्र, नाईजीरिया, बांग्लादेश व दक्षिण अफ्रीका भारत से भी ऊपर हैं। यह 20 देश समुद्रों में जाने वाले प्लास्टिक अपशिष्ट में 83 प्रतिशत का योगदान करते हैं।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (2015) के अनुसार भारतीय शहरों में प्रतिदिन 15000 टन प्लास्टिक अपशिष्ट निकलता है, जिसमें सिर्फ 9000 टन एकत्रित करके रिसाइकिल किया जाता है। बाकी 6000 टन हमारे मिट्टी, नालों, शहरों, नदियों, सड़कों, लैण्डफिल और समुद्रों में जाता है। भारत में प्रतिवर्ष 5.6 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट का निर्माण होता है।

क्या हैं प्लास्टिक इस्तेमाल के निषेध के प्रयास
भारत सरकार ने 2016 में प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स लाकर प्लास्टिक के निर्माण, बिक्री, वितरण और 50 माइक्रोन से कम के प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल पर निषेध लगाया है। इसके अलावा 20 से अधिक राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में पाॅलीथीन बैग के अलावा अन्य प्लास्टिक के सामान जैसे कप, प्लेट, चम्मच, ग्लास इत्यादि के निर्माण व इस्तेमाल पर निषेध लगाया है। पाँच राज्यों में यह निषेध आंशिक है। जम्मू-कश्मीर व महाराष्ट्र इस वर्ष जनवरी और मार्च में यह निषेध लाने वाले राज्य हैं।
इन निषेध के बावजूद तकरीबन हरेक राज्य में प्लास्टिक और पाॅलीथीन बैग का इस्तेमाल बदस्तूर जारी है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (2015) के अनुसार किसी भी राज्य में निषेध का पालन नहीं हो रहा है। नतीजा यह है कि हमारे शहर प्लास्टिक के कचरे से भरते और प्रदूषित होते जा रहे हैं। एक अंतर्राष्ट्रीय जरनल इनवायरमेंट साइंस एंड टेक्नोलाॅजी के मुताबिक समुद्रों में सर्वाधिक प्लास्टिक कचरा डालने वाली 20 नदियों में तीन सिंधु, ब्रह्मपुत्र और गंगा भारत की नदियाँ हैं।
भारत में शायद सभी राज्यों में सभी तरह के प्लास्टिक के उपयोग पर निषेध लगाने से ही समस्या हल होगी। प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध से कुछ रोजगार और समूहों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, इसका ध्यान सरकार को रखना होगा।

प्लास्टिक प्रदूषण पर इतना जोर क्यों
प्लास्टिक पूरे ठोस अपशिष्ट का 10 प्रतिशत ही है। यह समुद्री जीवों के लिए खतरा है लेकिन मानव जीवन को बहुत हद तक प्रभावित नहीं करता है। हालांकि नदियों में, समुद्रों में, पहाड़ों पर प्लास्टिक आंखों को खटकता है और जिस तरह की साफ, सुंदर दुनिया का सपना आजकल के राष्ट्रनेता दिखाते हैं उसमें आंख की किरकिरी की तरह लगता है। प्लास्टिक की तुलना में वायु प्रदूषण से हर वर्ष दुनिया में 70 से 90 लाख लोग मरते हैं, लेकिन सरकारें इस पर ध्यान देना शायद उतना आवश्यक नहीं समझती हैं।
स्टेण्डर्ड एण्ड पुअर के अनुसार प्लास्टिक अपशिष्ट से मछलियों, जैव विविधता और पर्यटन पर तकरीबन 139 डाॅलर सालाना का घाटा होता है। इसके मुकाबले अगर देखें तो बड़े-बड़े जहाजों और मछली पकड़ने के उद्योगों द्वारा अत्यधिक मछली पकड़ने और खादों के अधिक इस्तेमाल से समुद्रों में खाद बढ़ने से आर्थिक क्षति 200 बिलियन से 500 बिलियन तक आंकी जाती है। इसके अलावा ऐसा अनुमान है कि समुद्रों में कार्बन डायआॅक्साइड घुलने से हुए उनके अम्लीकरण से दुनिया को 1.2 ट्रिलियन डाॅलर प्रतिवर्ष का घाटा हो सकता है। ऐसे परिस्थिति में शायद यह सोचने की जरूरत है कि दुनिया भर की सरकारें इन बड़ी समस्याओं को छोड़कर प्लास्टिक प्रदूषण दूर करने में क्यों लगी है। शायद यह एक आसान लक्ष्य है और सरकारें जनता को साफ, सुंदर दुनिया का सपना बेचने में ज्यादा रुचि रखती हैं। अन्य समस्याओं का निवारण शायद ज्यादा कठिन है और बड़ी कंपनियों का सरकार पर शायद ज्यादा दबाव, सरकारों को जलवायु परिवर्तन या वायु और जल प्रदूषण को दूर करने से रोक रहा है।

क्या हैं प्लास्टिक के विकल्प और समाधान
प्लास्टिक प्रदूषण का समाधान मुश्किल है परंतु असंभव नहीं है। बहुत संस्थाओं और कंपनियों का मानना है कि प्लास्टिक के थैले की जगह खरीद-फरोख्त में कपड़े के थेले का इस्तेमाल करें। हालांकि यह ध्यान रखना होगा कि दुनिया में 3 प्रतिशत से कम खेती योग्य जमीन का इस्तेमाल कपास उपजाने में होता है लेकिन दुनिया में इस्तेमाल होने वाले एक चैथाई कीटनाशक और 11 प्रतिशत खाद का इस्तेमाल सिर्फ 3 प्रतिशत खेती योग्य भूमि पर कपास पैदा करने में लगता है। इसके अतिरिक्त एक किलो कपास पैदा करने में तकरीबन 5000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। कल्पना करें कि दुनिया के सभी बड़े सुपरमार्केट यदि प्लास्टिक की जगह कपड़े के बैग देने लगें तो एक नई समस्या खड़ी हो जाएगी। ब्रिटेन की सरकार के एक विश्लेषण के अनुसार कपड़े के बैग बनाने और उसके यातायात में लगे उत्सर्जन के अनुसार एक कपड़े का बैग तकरीबन 200 बार इस्तेमाल किया जाए तभी वह प्लास्टिक के बैग की अपेक्षा कम उत्सर्जन वाला होगा।
प्लास्टिक को कागज के बैग से बदलने में भी कई चीजों का ध्यान रखना होगा। हालांकि कागज से यह फायदा है कि वह बायोडिग्रेडेबल है, लेकिन कागज प्लासिटक से ज्यादा स्थान घेरता है और उसके यातायात में प्लास्टिक से कई गुना ज्यादा ईंधन लगता है। इसके अलावा यह भी ध्यान रखना होगा कि कागज जंगलों को काटकर तो नहीं बनाया जा रहा है। रिसाइकिल किए हुए कागज से बैग बनाने में कार्बन फुटप्रिंट थोड़ा कम होगा। इन वजहों से कई देश प्लास्टिक व कागज के थैलों पर बराबर अर्थदंड या निषेध लगाते हैं।

तो फिर क्या है समाधान
कम से कम प्लास्टिक का इस्तेमाल करें। बार-बार इस्तेमाल की जाने वाली पानी की बोतल रखें। बहुत ज्यादा पैकेजिंग वाले सामान (कपड़े, फल, खिलौने, भोजन के सामान) इत्यादि न खरीदें। खरीदारी करने के लिए हमेशा अपना बैग या थैला साथ रखें। प्लास्टिक के कप, प्लेट, चम्मच, ग्लास, स्ट्राॅ इत्यादि का कम इस्तेमाल करें। बाहर रेस्तरां में खाने के बजाय घर पर खाना बनाएं, इससे आप कम प्लास्टिक अपशिष्ट पैदा करेंगे। महिलाएं सौंदर्य प्रसाधन का सामान कम से कम खरीदें, क्योंकि प्लास्टिक अपशिष्ट में सौंदर्य प्रसाधन से आए हुए प्लास्टिक की मात्रा बहुत अधिक है। इसके अतिरिक्त अपने राज्य/क्षेत्र/शहर में अपशिष्ट के पृथकीकरण वाले कानून बनाने और उसके अनुपालन पर जोर दें। पर्यटन में जाने पर भी कम से कम प्लास्टिक का प्रयोग करें और अपने अपशिष्ट की जिम्मेदारी लें।

राजस्थान प्रत्रिका में 5 जून पर्यावरण दिवस पर प्रकाशित सम्पादित अंश

Sep 19, 2016

Floods of Fury: The most frequent and costly natural disaster

by Nirma Bora:

Heavy rains have once again triggered deadly floods across the globe, with 175 people being killed in India alone (WSJ, Aug 2016). Ministry of Home Affairs in India said the states of Bihar, Uttar Pradesh, Rajasthan, Madhya Pradesh and Gujarat are also among the worst affected this season. Almost 4 million people have been affected in Bihar and Uttar Pradesh alone. In Europe too, rivers are bursting their banks from Paris to the southern German state of Bavaria, killing people, trapping thousands and forcing everything from subway lines to castles to shut down. Louisiana, in the US,  is also dealing with some of the worst flooding to ever hit the state.

A 2015 report by the UN, “The Human Cost of Weather Related Disasters”, reveals that in the last 20 years, 157,000 people have died as a result of floods. Flooding alone accounted for 47% of all weather related disasters (1995-2015), affecting 2.3 billion people, the majority of whom (95%) live in Asia. Of the floods occurring globally, the ones in India, Pakistan and the Balkans have been rated the most severe (IFRC, 2015).       
                                                           
The nature of disastrous floods has also changed in recent years, with flash floods, acute riverine and coastal flooding becoming increasingly frequent. In addition, urbanization has significantly increased flood run-offs, while recurrent flooding of agricultural land, particularly in Asia, has taken a heavy toll in terms of lost production, food shortages and rural under-nutrition. In rural India, for example, children living in flooded household were more likely stunted and underweight than those living in non-flooded households (Rodriguez, 2011). Children exposed to floods in their early years of life also suffer the highest levels of chronic malnutrition caused by disruptions in food supply or diarrheal illness caused by contaminated water (Kousky, 2016).

The frequency of these extreme events is likely to triple across the Indian Ocean in the coming decade as the manmade global warming is most likely to shift in the behavior of a naturally-occurring climate cycle, known as the Indian Ocean Dipole (Freedman, 2014). Like the Pacific Ocean, which gives rise to El Niño and La Niña events, the Indian Ocean has its own inherent fluctuations, like oceanic and atmospheric mood swings, can interact in reinforcing feedback cycles, leading to positive or negative Dipole events that lead to huge changes in where it rains and how frequently and heavily it does so.  

As flooding, exacerbated by climate change and inadequate preparedness has become a recurring hazard, economic losses and human hardship due to floods continues to rise. An analysis from the World Resources Institute (WRI) in 2015 shows that river flooding could affect 21 million people and expose $96 billion in GDP worldwide each year. By 2030, those numbers could grow to 54 million people and $521 billion in GDP affected every year. India currently has by far the most GDP at risk, at $14.3 billion, and researchers say this figure could rise more than 10-fold by 2015. 

In view of the serious health and socio-economic impacts of flooding and the possibility of greater losses in the future, flood control should be regarded as a development issue as well as a humanitarian concern. Priority should be given to cost-effective mitigation measures in poor regions at high risk of recurrent flooding, together with post disaster rehabilitation programmes. It is necessary to promote and harmonise changes in water policies and land-use practices, as well as environmental protection and nature conservation, in order to improve flood management in the frame of Integrated River Basin Management.

 Low like countries like Bangladesh, Malaysia and Philippines have successfully framed coping strategies to deal with destructive floods that annually paralyze businesses and work. These are a combination of structural and non structural mitigation measures. While structural measures includes physical construction to reduce or avoid possible impacts of hazards, non structural measures uses knowledge, practice or agreement to reduce risks and impacts, in particular through policies and laws, public awareness raising, training and education.  A pivotal role is played by community volunteers in minimizing damage (including fishermen, women, youth and businessmen) who are trained in vulnerability and capacity assessments, disaster management and warning dissemination.

People, governments, businesses, and other organizations in such region must be aware of the current and future flood risks they face. Once they understand the risks, they can start to take action soon. Better strategic development planning by the government at all levels most crucial. The approaches to flood management presently exercised in many flood prone developing countries need to be given a re-look to have an integrated strategy for policy and management related to floods. Replication of best practices and models followed in Bangladesh, Malaysia and Philippines can also reduce people and economic assets' exposure to river flood risks.


Sep 2, 2016

Rolling Down their Health Concerns with Beedis

By Dinbandhu Vats 



Jarina Bibi wife of Mohammad Nasim has been residing in Chandan Gauda Village in Banka district, Jamui. She has been rolling beedi for last 25 years despite eyes problem and permanent bent on her right thumb. Lack of livelihood options and responsibility of running home forced them to continue this profession even now. A number of TB patents have been increasing in her village. Coughing, backache, eye and wrist problem is very common among the beedi workers. Around 2 lakhs beedi workers in Jamui, Banka and Deoghar districts of Bihar and Jharkhand live a life of misery. They are constantly handling hazardous substances exposing themselves to the risks of diseases like TB, asthma, lung, skin, spinal problems, eye problem etc. They claimed their fingers become senseless after working five to six hours. Several women of this village have shown ganglion in their fingers. Even their small children, in some cases newborns, are exposed to tobacco.  Most women work with infants on their lap who are continuously exposed to tobacco dust, fumes and other harmful substances. The small hands of children are not holding books and pencil, they are rolling beedi’s with their mothers after returning from school.

Despite this fact, beedi workers are desperately poor, with no access to any social security benefits. They are underpaid regardless of the hard work. Rate of rolling tendu leaves vary between 70-90 Rs per 1000 beedis.  However, usually a woman can roll 500 Beedis at max after five hours constant work fetching 35-45 Rs per day. Beedi workers are listed in the schedules of the Minimum Wages Act 1948, which do not list most other home-based activities. They are also entitled to health insurance, maternity benefits and housing assistance.

But the beedi industry is male-dominated, contributing to economic exploitation of women. Contractors supply beedi-rollers with poor quality tendu leaves and then reject beedis that are ‘deemed poor’ in quality. They end up taking the beedis without paying for them. Entire households that rely heavily on beedi production for their survival are forced into debt with beedi contractors when raw material is scarce and has to be bought in the open market at higher prices. This leads to beedi company middlemen gaining financial control over the workers. However Madina Khatun expressed her concerns over lack of government facilities. She said whenever beedi workers visited Beedi hospital at Jasidih under Deoghar district Jharkhand, they were denied any treatment. There is no any special hospital for Beedi workers in Banka district. Beedi workers never enjoy the benefits of insurance cover or other government aid or facilities.  Bihar Government had claimed to issue identity card to Beedi workers and construction of house, but none these beedi workers avail any facility.
     
Pairvi along with Lok Vikas Sansthan, Jamui highlighted the problems of beedi workers. Their main concerns include – identity as a worker so that they can avail the benefits given by government to them, hazardous nature of the work and their demand to safer and more profitable livelihood options. Beedi workers need to be sensitized about their rights that would help them to demand their rights.

विकास के हाशिये पर खड़ा दलित

दीनबंधु वत्स

बिहार निरंतर आर्थिक प्रगति की राह पर है। वर्ष 2005-06 से 2014-15 के बीच राज्य की अर्थ व्यवस्था का विकास 10.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से हुआ। यह देश की सभी प्रमुख राज्यों के बीच लगभग सर्वाधिक है। लेकिन इसके बावजूद भी बिहार में दलितों की स्थिति में व्यापक सुधार नहीं हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार दलितों के विकास के लिए आवंटित धन राशि भी पूरी तरह ख़र्च नहीं कर पाती है। सरकार ने अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण विभाग के लिए वर्ष 2016-17 में 1628.64 करोड़ रुपये बजट में प्रस्तावित किए हैं। जिसमें योजना मद में 1413.05 करोड़ रुपये और ग़ैर योजना मद में 2015.59 करोड़ रुपये शामिल हैं। जबकि अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण विभाग का कुल बजट 2015-16 में 1789.39 करोड़ था। हालाँकि 2014-15 में 1181.12 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। इनमें से 85 प्रतिषत का ही उपयोग हो पाया था। वहीं 2013-14 में आवंटित धन राषि का केवल 83 प्रतिशत हिस्सा का ही उपयोग हो सका है।

बिहार निरंतर आर्थिक प्रगति की राह पर है। वर्ष 2005-06 से 2014-15 के बीच राज्य की अर्थ व्यवस्था का विकास 10.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से हुआ। यह देश की सभी प्रमुख राज्यों के बीच लगभग सर्वाधिक है। लेकिन इसके बावजूद भी बिहार में दलितों की स्थिति में व्यापक सुधार नहीं हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने दलितों में भी सबसे गरीब समुदायों के लिए एक अलग से महादलित समुदाय बनाया। जिससे उनके विकास पर अधिक ध्यान दिया जा सके। हालांकि, धीरे-धीरे इस समुदाय में दलितों की 22 में से 21 जातियां शामिल हो गईं। इनके विकास के लिए महादलित विकास मिषन की स्थापना की गई और अलग से धनराशि आवंटित की गई। लेकिन इसका भी आलम यह है कि आवंटित धनराशि भी पूरी तरह खर्च नहीं हो पा रही है।

बिहार में दलितों की आबादी लगभग 16 प्रतिशत है। भारत के सभी नागरिकों के लिए कानून के समक्ष समानता और मूलभूत मानवाधिकार और नागरिक अधिकार सुनिश्चित करने वाले संविधान को अपनाने के छः दषकों से अधिक बीत जाने के बाद भी इनके प्रति भेद-भाव बदस्तूर जारी है। बिहार में दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति आज भी चिंताजनक बनी हुई है। मूलभूत आवेश्यक्ताऒं के अभाव और सामाजिक भेदभाव का सबसे ज़्यादा प्रभाव दलित महिलाओं और बच्चों पर होता है। सामाजिक-राजनैतिक अधिकारों का सबसे अधिक हनन भी इन्हीं का होता है। सरकार दलितों के कल्याण के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करती है। फिर भी विकास की मुख्य धारा से यह समुदाय वंचित है।

बिहार निरंतर आर्थिक प्रगति की राह पर है। वर्ष 2005-06 से 2014-15 के बीच राज्य की अर्थ व्यवस्था का विकास 10.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से हुआ। यह देश की सभी प्रमुख राज्यों के बीच लगभग सर्वाधिक है। लेकिन इसके बावजूद भी बिहार में दलितों की स्थिति में व्यापक सुधार नहीं हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने दलितों में भी सबसे गरीब समुदायों के लिए एक अलग से महादलित समुदाय बनाया। जिससे उनके विकास पर अधिक ध्यान दिया जा सके। हालांकि, धीरे-धीरे इस समुदाय में दलितों की 22 में से 21 जातियां शामिल हो गईं। इनके विकास के लिए महादलित विकास मिशन की स्थापना की गई और अलग से धनराशि आवंटित की गई। लेकिन इसका भी आलम यह है कि आवंटित धनराशि भी पूरी तरह खर्च नहीं हो पा रही है।

बिहार में दलितों की आबादी लगभग 16 प्रतिशत है। भारत के सभी नागरिकों के लिए कानून के समक्ष समानता लगभग 80 प्रतिशत दलित गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। इनमें लगभग 91 प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं। भूमिहीनता से ग़रीबी की समस्या बढ़ती है और विकास की दर भी घटती है। बिहार में 91 प्रतिशत किसान सीमांत किसान हैं, जिनके पास एक हेक्टेयर से कम की जोत है और दलित किसानों के पास भूमि का अवदान और भी कम है। बिहार में एक भी दलित किसान बड़ी जोत वाला नहीं है। हालाँकि सरकार का दावा है कि लगभग 96 प्रतिशत आवासहीन दलितों के पास भूमि उपलब्ध करा दी गई है। दलितों की लगभग 80 प्रतिशत आबादी मात्र 4 प्रतिशत भूमिजोत पर आश्रित है। 2.43 लाख लक्षित परिवारों में से 2.34 लाख परिवारों को ही आवास योग्य भूमि आवंटित की गई है। इसमें भी अधिकांश लोगों का जमीन पर कब्जा ही नहीं हो पाया है। जीवन यापन के लिए यह लोग मजदूरी पर ही निर्भर हैं। लगभग तीन चैथाई घर में स्वच्छ पेयजल की सुविधा नहीं है। इसके अलावा आधे से अधिक दलित एक कमरे के घर में रहते हैं, जिनमें लगभग सात प्रतिशत लोगों के पास ही ईंट का पक्का मकान है। अधिकांश घरों में बिजली नहीं है। जनगणना 2011 के अनुसार 10 प्रतिशत से भी कम घरों में बिजली की सुविधा उपलब्ध है। ग्रामीण इलाकों में स्थिति और भी दयनीय है, जहां मात्र 6 प्रतिशत घरों में ही बिजली पहुंच रही है। स्वास्थ्य सुविधाओं और पहुँच का घोर अभाव है। दलित समुदाय में षिक्षा का स्तर भी सबसे कम है। मुशहर समुदाय में साक्षरता 6 प्रतिषत के क़रीब है।

इस समुदाय के लोग आज भी मैला ढोने का काम कर रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना 2011 के अनुसार राज्य में अभी भी 7268 लोग सिर पर मैला डोने का काम कर रहे हैं। जिनमें मात्र 137 लोगों की पहचान हुई है और उनमें से अबतक 131 लोगों को सहायता के नाम मात्र 40 हज़ार रुपये एकमुश्त दिया गया है। अभी तक किसी को स्वरोज़गार परियोजना के तहत काम उपलब्ध कराया नहीं जा सका है। तमाम प्रयासों के बावजूद भी इस अमानवीय कार्य से मुक्ति नहीं मिल पाई है। सर पर मैला ढोने वालों में सबसे अधिक महिलाएं हैं, जिनका सामाजिक राजनैतिक भेदभाव के कारण जीवन कठिन हो गया है।


Aug 30, 2016

चैती की मौत से उपजे कई अनसुलझे सवाल

दीनबंधु वत्स

चैती का घर जहां उसने अपनी अंतिम सांस ली
चैती देवी की मौत ने हमारे सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के समक्ष न सिर्फ़ कई सवाल खड़े किए हैं बल्कि सरकारी दावों की पोल भी खोल कर रख दी है। तीन बच्चों की माँ चैती देवी (35) की मौत संदीग्ध परिस्थितियों में बिहार के वैशली ज़िला के निकट पुरखोली पंचायत के समसपुरा गाँव में हो गई थी। यह ख़बर 21 जनवरी को स्थानीय मीडिया के माध्यम में सामने आई।

चैती समसपुरा में अपने मौसेरे भाई देवलाल माँझी के घर रहती थी। देवलाल और उसकी पत्नी रेखा माँझी तीन चार दिनों के लिए घर से बाहर गए हुए थे। घर में खाने पीने का कोई समान नहीं था। देवलाल का कहना है कि वह पड़ोस के शम्भू मांझी को चैती की देख भाल रखने के लिए कह कर गए थे। चैती पिछले कुछ दिनों से बीमार थी। गाँव वालों ने बताया कि उसे दमा की बीमारी थी। ठंड का मौसम भी था और इस दौरान घर में खाने पीने का कुछ सामान भी नहीं था। बीमारी की हालत में अकेले बिना भोजन के रहना शायद चैती के लिए मौत का सबब बन गया। लोगों से बातचीत के दौरान विरोधाभाषी तथ्य सामने आए। शम्भू मांझी ने बताया कि उसने चैती और उसके साथ रह रहे दोनों बच्चों को तीनों दिन खाना खिलाया जबकि चैती के सगे भाई बोधी मांझी ने बताया कि वह शम्भू को खाना बनाने के लिए आवश्यक सामान देकर गया था। वहीं गाँव के पत्थल मांझी ने बताया कि सोमवार रात जब वह चैती को देखने गया तो वह घर में बेहोष`

चैती के बीटा और बेटी अपनी मौसी रेखा देवी के sath 
पड़ी थी और उसके दोनों बच्चे रो रहे थे। इस ठंड के मौसम में उनके पास ओढ़ने के लिए कंबल तक नहीं था। वह घर के फटे पुराने कपड़े ओढ़ी हई  थी। पत्थल मांझी के अनुसार उसने दोनों बच्चों को खाने के लिए पानी में भीगा हुआ चूड़ा दिया। लेकिन चैती की हालत इस हद तक ख़राब थी कि वह आँख भी नहीं खोल पा रही थी। इस विरोधाभाष से यह प्रतीत होता है कि चैती को खाने के लिए ठीक से कुछ नहीं मिल सका। बीते तीन दिनों तक उसने क्या खाया यह भी स्पष्ट नहीं है। बीमारी और ठंड का प्रभाव भी खाली पेट ज़्यादा दिखता है। लिहाज़ा दयनीय हालात में रह रही अभावग्रहस्त चैती की मौत हो गई।

सामाजिक आर्थिक विषमता को झेल रही चैती के साथ भेदभाव मरने के बाद भी कम नहीं हुआ। चैती की मौत की ख़बर स्थानीय प्रखंड प्रमुख पार्वती देवी की मौत की वजह से दब गई। गाँव के लोग पार्वती देवी के अंतिम संस्कार में शामिल होने चले गए थे। चैती का शव घर में ही पड़ा रह गया। बाद में मामला प्रकाश में आया। चैती का मौसेरा भाई देव मांझी को गाँव आने में दो दिन लग गए।

चैती की कहानी इस टोले की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सामने लाती है। ग़रीबी लोगों को भपेट खाना तक नहीं देती तो स्वास्थ्य और बीमारियों पर ध्यान देना बहुत दूर की बात है। ज़्यादातर लोगों का कहना था कि सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली में भारी गड़बड़ी है। लोगों को हर महीने राशन नहीं मिलता है। कुछ लोगों के पास तो इतना भी पैसा नहीं कि राशन की दुकान से चावल गेंहू ख़रीद सकें।

इस पूरे टोले में किसी के घर में शौचालय नहीं है। सार्वजनिक शौचालय बन गए हैं। लेकिन  शौचालय टूटे फूटे हैं जिसका कोई इस्तेमाल नहीं होता है। गाँव में स्वच्छ पेयजल के नाम पर एक हैंडपंप है, जिसका इस्तेमाल पूरा गाँव करता है। तमाम दावों और प्रयासों के बावजूद गाँव में षौचालय का अभाव स्वच्छ भारत मिषन की असफ़लता की कहानी बयां करती है।

कुल मिलाकर गाँव की ज़मीनी हालत और सरकारी समावेषी विकास के दावे एक दूसरे के बरअक्स नज़र आते हैं। इससे यह भी परिलक्षित हो रहा है कि आज भी अंतिम पायदान तक आते-आते विकास की गति शिथिल पड़ रही है।

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